बचपन में स्कूल में मैंने दो बादलों की कहानी पढ़ी थी। एक काला और दूसरा सफ़ेद। काला बादल अपने जीवन का उत्कर्ष ढूंढ रहा था। सफ़ेद बादल को उत्कर्ष पहले ही प्राप्त हो चूका था। तो लेखक को यह सूचित करना था की मनुष्य का जीवन परोपकार की भावना से ओतप्रोत हो तो वह अपना उत्कर्ष स्वयं ही ढूंढ पाता है। यह कहानी मेरे मन में बसी हुई है इसलिए की जिस उम्र में मैंने यह पढ़ी थी तब अच्छाई और नेकी यह गुणविशेषताएँ हमें हमारे जीवन का सर्वोच्च परिमाण के रूप में बतलाई गयी थी। आज किसी गाने में मैंने 'एक भटकता बादल' यह लफ्ज़ सुने और मुझे बचपन की नेकी भरी वह सीख याद आयी। सच ही तो हैं के हम अपनी आस्था और अपने स्वभाव विशेष का मेल रखते हुए जीवन कंठित करते हैं। कोई भी नयी चीज़ अपनाते हुए पहले सहमे होते है और पुरानी चीज़ों को अलविदा करते हुए उतने ही भावुक। यही भाव तो हमें समूचे प्राणी जगत में सर्वश्रेष्ठ ठहराते है।
कई बार अपनी स्मृतियों की गंगा में बहते हुए हम न जाने कितने ही साल, घंटे और लम्हें पार कर जाते है। जब यादें याद आती हैं, तब हम उन्हें एक तीसरे दायरे से देखते है। कई बार तो मैं किसी अनजान जगह पर खड़े होकर वही दृश्य देख रही होती हूँ जो मेरे सामने घट रहा होता है। मानो मैं वहां शारीरिक रूप से तो मौजूद हूँ पर मेरा मन कही और ही होता है। कुछ यादें तो ऐसी है जो शायद कभी घटी ही नहीं थी। हमारा सूक्ष्म मन बहोत सारी घटित घटनाओं और कल्पनाओं को अक्सर मिलाकर कोई नयी स्मृति बनाकर मन के पटल पर छोड़ देता है। ऐसे में ना ही हमे कभी उस घटना के घटने की याद रहती है और ना ही कोई एहसास।
मन और रुह का क्या कोई गहरा सम्बंध है? मुझे अक्सर लगता है के मेरा मन जो कहता है वो मेरी रुह से निकली हुई आवाज होती है। जैसे की हर अरमान मेरा मन से ज्यादा रुह से नाता रखता हो। मन, दिल और रुह - यह तीनों भी ना जाने एक ही समय कितनी सारी हकीकतों को परख लेते है। किसी अदृश्य चाशनी से मेरे ख़याल साफ़ होकर बाहर निकलते है। किसी साये सा मन हर एक ख़याल का पीछा करता रहता है। कुछ साल पहले तक जब मैं जिंदगी के बारे में सोचती थी तब हमेशा लगता था के अपने उत्कर्ष के लिए मुझे सिर्फ स्वयं-प्रेरणा की जरूरत होगी जो मुझे खुद से ही मिलेगी। फिर धीरे-धीरे यह समझ आया की स्वयं-प्रेरणा तो जरूरी है ही, साथ ही अपने सपनों में विश्वास बरक़रार रखना भी उतना ही जरूरी था। किसी बादल सा भटकने की चाह रखने से ज्यादा किसी परिंदे के पंख लगा कर ऊँचाई हासिल करने में ज्यादा नैतिकता थी। और बादल को तो अपना कोई अस्तित्व भी नहीं होता, वो तो तूफ़ान से झूँझने के काबिल तक नहीं होता। इसलिए अपनी काबीलियत हमें खुद ही निर्माण करनी होगी। विश्वास और इरादें इनमे एक जान हो, तब तो पूरी दुनिया हम पार कर ले।
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