"कह रहा है शोर-ए-दरिया से समुंदर का सुकूत
जिस का जितना ज़र्फ़ है उतना ही वो ख़ामोश है ।"
पिछले कुछ दिनों से मैंने खुद के बारे में यह जाना के कितनी आसानी से मैं लोगोंको माफ़ कर देती हूँ। और, कितनी आसानी से वह वापिस मेरे जिंदगी में शामिल भी हो जाते हैं। पर, फिर वह पहले जैसी बात नहीं रहती। अब हम बातें तो कर लेते हैं, पर उनमें वह विश्वास नहीं रहा जो पहले था। ऐसा क्यों होता है, हम इंसानो के साथ? इतना भरोसा, इतनी इज्जत जिन्हे हम देते हैं वह किसी बात पर हमसे इतनी बेरुख़ी से पेश क्यूँ आते हैं? ख़ैर, मैंने काफी सोच लिया इस बात पर अब।
बस मसला हमारी जिंदगी में यह हैं की हम बहुत ज्यादा छूट दे देते हैं लोगों को हमें चोट पहुंचाने की। हम उन्हें इतना हक़ दे देते हैं की वह हमें बाद में कुचल दे अपने शब्दों से, अपने बर्ताव से, अपने रूखेपन से। मुझे वासिम बरेलवी साहब का एक शेर इस वक़्त के लिए काफी मुनासिब लगता हैं--
'तुम गिराने में लगे थे, तुमने सोचा ही नहीं,मैं गिरा तो मसला बनकर खड़ा हो जाऊंगा।'
हम तो सभी को अपना लेते हैं जो भी हमारी राहों में जुड़ते जाते हैं। साथ मिलकर, बैठकर, बातों से उलझते हुए एक दूसरे का सहारा बनते जाते हैं। अच्छी दोस्तियां भी निभाने की कोशिश करते हैं, पर रोज जो हमारी हस्ती से यह राख उड़ती रहती हैं उन्हें निभाते हुए, उनपर खरा उतरते हुए उसे हम कैसे बताएं? किसे बताएं, और क्या बताएं की कितनी कोशिश की हमने? यह एक बड़ी लम्बी कड़ी बनती गयी खुदको ही दूसरों के लिए मिटाते, मिटते। और, जब वही लोग वापिस आते हैं तब उन्हें कैसे बताएं अब तो हम भी बदल गए आपका बदला हुआ रूप देखकर! हमने खो दिया वह जो पहले था।
बस, यहीं फिलहाल हमारा मसला हैं।
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