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सूर्य की पहली किरण से सूर्य की अंतिम किरण तक


क्या हुआ जो युग हमारे आगमन पर मौन?
सूर्य की पहली किरण पहचानता है कौन?
अर्थ कल लेंगे हमारे आज के संकेत। 
#दुष्यन्तकुमार
आज मुझे खामोशी की आवाज़ सुननी थी। मगर कही सुनाई नहीं दी। रोजमर्रा की जिंदगी में इतने सारे हादसे होते रहते है की उनका महत्व कम हो गया है। उन्हें बार बार दोहराने का कोई फायदा ही नहीं। पहले किसी दोस्त को मन की दुविधा कितनी आसानी से बता दिया करती थी मैं, आज उसी दोस्त को मेरी बातों का बोझ न लगे इसी विवंचना के कारण मैं खामोश हो जाती हूँ। कितनी अजीब बात है की हम में से कई लोगों को एहसास तक नहीं होता जिंदगी की इस टेढ़ी-मेढ़ी झंझटों का और यदि एहसास हो भी जायें तो उसमें से बाहर कैसे निकले ये एक नयी पहेली सामने आ खड़ी उठती है। कुछ साल पहले तक मुझे खुदसे बहुत शिकायत होती थी की मेरी जिंदगी किसी और की तरह क्यों नहीं है। जैसे मैं किसी और को अपने नजर से देखती थी तो उनकी जिंदगी मुझे बड़ी परिपूर्ण लगती थी और खुदकी बहुत कष्टप्राय। यह एहसास श्री. मुन्शी प्रेमचंदजी की कहानियाँ पढ़कर द्विगुणित हो जाता था। फिर धीरे- धीरे बात ऐसी समझ आयीं की ना ही किसी और के सुख से हमें अपने दुखों का कलम करना चाहिये और ना ही किसी के आँसुओं का मोल हमारे कष्टी जीवन की विपदाओं से। समय बहुत लगा पर जिंदगी भर का बोझ हल्का हो गया इस सच्चाई के कारण।

मेरा मानसिक स्वास्थ बरकरार रखने में बहुत ज्यादा हात संगीत का रहा है। कविता को संगीत का साज चढ़ाकर मैंने जितनी भी रचनायें सुनी है, उनमेसे अधिकतर ने मेरा हमेशा होसला बुलंद रखा। मेरा एक सहअध्यायी हुआ करता था जो मुझसे हर वक्त कहता की अपनी कमजोरी को अपनी ताकत मत बनाओ, अपनी आन्तरिक शक्ति को अपना होसला बनाओ। उसकी बात तब समझ तो आती थी किन्तु उसका योग्य प्रयोजन कभी घडता हुआ नजर न आया। आज जब भी ताकत और होसला इन दोनों चीजों का मेल किसी और को समझाती हूँ तब उस दोस्त की याद आती हैं और उसके मजबूत इरादों की भी। कई बार हमारा निजी संघर्ष हमें औरों से अलग रूप में पाता है। मैंने देखा है जब लोगों का भरोसा टूटता है तो कितनी तकलीफ होती है। खुदके साथ जब सारी बुरी चीजें होती है तो कितनी वेदना होती है और उसे शायद हम लब्जों में बयाँ भी नहीं कर पाते अधिकतर समय। मगर कितना अस्थायी होता है सब कुछ। जैसे पल आता है, वैसे ही बीत भी जाता है और दुःख की तीव्रता भी कम हो जाती हैं, दिन गुजरते ही। इसी अवस्था को तो हम सब निरंकारी सद्पुरुषों की सिद्धि मानते है, की जो उन्हें कड़ी तपस्या से प्राप्त होता है वो हम जैसे मर्त्य इंसानों को नहीं हो सकता।

काश इतने दुःख का विवरण करने की क्षमता हममें ना होती। यह सब लिखते हुए भी मुझे कितना भारी महसूस हो रहा है। ऐसा लग रहा है जैसे मेरे मन पर बहुत वजन रखा हो और ख़ुशी का कोई भी संकेत मेरी तंत्रिकाओं से बिलकुल अज्ञात हो। सोचने पर भी कितनी अजीब बात लगती है तो जो घुटघुटकर हर पल लोग जिंदगी जीते रहते है उनका क्या होता होगा? इतने सारे सवाल सोचकर भी मुझे बहुत परेशानी हो रही है अभी। सोचा कुछ विचार लिख दूँ तो मन हल्का हो जाएगा परन्तु और भी ज्यादा कुटिल ख़याल मेरे मस्तिष्क में झूल रहे है इस समय। क्यों इतनी चिंताओं से हम ग्रस्त है? इतनी हताशता मुझे कभी नहीं हुई। शायद हुई हो अतीत में पर उसपर इतने गौर से सोच-विचार मैंने कभी किया ही नहीं। कोई बदलाव की उम्मीद मुझे नजर नहीं आ रही इस घडी। मुझे यकीन नहीं होता की इतना असहाय मैं खुदको इस समय महसूस करवा रही हूँ। लेकिन उम्मीद पर तो दुनिया कायम है और मैं इतनी जल्दी हार मानने वालों में से नहीं हूँ। इस अवस्था को भी मात दे कर उजाले तक जरूर अपना रास्ता निकालूंगी। शायद कठिनता इसीलिए है की और ज्यादा हिम्मत और धीरज से मैं अपना मार्ग हासिल करू। फिलहाल तो मंझिल भी मुझे दिखाई दे रही है लेकिन रास्ता मेरी ऊर्जा को निगलता जा रहा है। मैं इनमें से जरूर उजागर हो कर अपने लक्ष्य तक मार्गक्रमण करुँगी। 

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